वाराणसी: जिस देश ने जब आपदा के समय तुर्किये की मदद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, उसी देश भारत में अब तुर्किये और पाकिस्तान के खिलाफ विरोध की ज्वाला भड़क उठी है। विशाल भारत संस्थान के नेतृत्व में लमही स्थित नेताजी सुभाष मंदिर से एक अनूठी और प्रभावशाली शव यात्रा निकाली गई, जिसमें तुर्किये और पाकिस्तान के प्रतीकात्मक पुतलों को अंतिम संस्कार के लिए ले जाया गया। यह विरोध प्रदर्शन महज़ एक रैली नहीं था, बल्कि यह भारत के नागरिकों की ओर से तुर्किये और पाकिस्तान के आतंक समर्थक रुख के विरुद्ध एक भावनात्मक और सशक्त चार्टर बन गया है।
यह विरोध उस गहरी पीड़ा और आक्रोश का परिणाम था, जो भारतीयों ने तब महसूस किया जब तुर्किये ने पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत के खिलाफ घातक ड्रोन और आतंकी तत्वों को समर्थन देना शुरू किया। यह वही तुर्किये है जिसे भारत ने फरवरी 2023 में आए विनाशकारी भूकंप के दौरान इंसानियत का धर्म निभाते हुए राशन, दवाइयाँ और राहत सामग्रियाँ भेजकर मदद की थी। उस वक्त भारत ने न केवल मानवीय कर्तव्य निभाया, बल्कि वैश्विक मित्रता का परिचय भी दिया। लेकिन बदले में, तुर्किये का पाकिस्तान की ओर झुकाव और आतंकवादी गतिविधियों का समर्थन भारतीय समाज को गहरी चोट दे गया।
इतिहास में भी तुर्कों का भारत के प्रति रुख कभी मैत्रीपूर्ण नहीं रहा। वर्ष 1192 में भारत पर आक्रमण करके तुर्कों ने भारतीय सभ्यता को गहरे घाव दिए। दिल्ली सल्तनत के सुल्तान बलबन जैसे शासकों ने भारतवासियों के साथ नस्लीय भेदभाव को बढ़ावा दिया और खुलेआम कट्टरता की वकालत की। यही प्रवृत्ति आज भी, भले ही आधुनिक रूप में हो, लेकिन तुर्की और पाकिस्तान की भारत विरोधी गतिविधियों से साफ झलकती है।
इस पृष्ठभूमि में विशाल भारत संस्थान की अगुवाई में निकाली गई शव यात्रा केवल एक सांकेतिक प्रदर्शन नहीं थी, बल्कि यह देश के कोने-कोने में उमड़ते राष्ट्रवादी जनमत की प्रतिनिधि बन गई। इस आयोजन में हिंदू-मुस्लिम एकता का भी जीवंत उदाहरण सामने आया, जब मुस्लिम समुदाय के दर्जनों प्रमुख लोग भी इस विरोध में खुलकर शामिल हुए। अफसर बाबा, अफरोज पाण्डेय, नौशाद दूबे, शहाबुद्दीन तिवारी, और लियाकत अली जैसे मुस्लिम नेतृत्वकर्ताओं ने हाथों में शव की हंडियाँ लेकर यह संकेत दिया कि आतंक का साथ देने वालों के लिए अब भारत में कोई जगह नहीं है।
शव यात्रा में सबसे आगे मुस्लिम धर्मगुरु अफसर बाबा पाकिस्तान के प्रतीकात्मक शव के अंतिम संस्कार के लिए हड़िया लेकर चल रहे थे, वहीं शहाबुद्दीन तिवारी ने तुर्किये के प्रतीकात्मक शव के अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी उठाई। यह दृश्य समाज में एक नई सोच और एकता की शुरुआत का प्रतीक बन गया, जिसमें मजहब से ऊपर उठकर राष्ट्र सर्वोपरि हो गया।
इस मौके पर विशाल भारत संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. राजीव श्री गुरुजी ने आक्रोश प्रकट करते हुए कहा कि, "भारत ने मानवता के नाते तुर्किये की मदद की, लेकिन तुर्की ने उसकी पीठ में छुरा घोंप दिया। जो देश आतंकवादियों का समर्थन करे, वह मानवता की दृष्टि से मृत देश है। ऐसे राष्ट्रों का बहिष्कार अब केवल सरकार का काम नहीं, नागरिकों का कर्तव्य बन गया है।"
संस्थान के चेयरमैन नौशाद अहमद दूबे ने भी सख्त लहजे में कहा कि "तुर्की शुरू से ही धोखेबाज रहा है। उसकी फितरत में विश्वासघात है। हम अब जाग चुके हैं और पाकिस्तान-तुर्की जैसे देशों से हर प्रकार के संबंध को समाप्त कर चुके हैं। यह अब केवल सरकार की नीति नहीं, हमारा नागरिक निर्णय है।"
इस प्रदर्शन में अनेक सामाजिक कार्यकर्ता, डॉक्टर, छात्र-छात्राएं और आम नागरिक भी शामिल हुए। डॉ. अर्चना भारतवंशी, डॉ. नजमा परवीन, डॉ. मृदुला जायसवाल, अब्दुर्रहमान, अशद, लियाकत, समीर उल्लाह, जमील खान, मुहम्मद शहाबुद्दीन, मो. फिरोज, कलीमुद्दीन, सौरभ पाण्डेय, सुनीता, गीता, मयंक श्रीवास्तव, मो. रेहान, उजाला, दक्षिता सहित सैकड़ों लोगों ने इस विरोध में हिस्सा लिया और पाकिस्तान-तुर्किये मुर्दाबाद के नारे लगाए।
यह विरोध सिर्फ एक घटना नहीं बल्कि एक चेतावनी है, जो साफ संदेश देती है। भारत अब मानवता की आड़ में अपने खिलाफ साजिशें बर्दाश्त नहीं करेगा। जिस तुर्किये और पाकिस्तान ने आतंकवाद का साथ चुना, उनके लिए भारत में अब कोई स्थान नहीं। यह अब देश के आम नागरिकों का फैसला है, और यह निर्णय सरकार की नीतियों को भी दिशा देने की शक्ति रखता है।
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