बांग्लादेशी महिला अंबिया बानो ने काशी में अपनाया हिंदू धर्म, मृत बेटी के लिए किया पिंडदान

बांग्लादेशी मूल की मुस्लिम महिला अंबिया बानो ने काशी में सनातन धर्म अपनाया और अपनी मृत बेटी की आत्मा की शांति के लिए दशाश्वमेध घाट पर पिंडदान किया।

Mon, 12 May 2025 18:52:14 - By : SANDEEP KR SRIVASTAVA

वाराणसी: काशी की पवित्र नगरी एक बार फिर एक ऐतिहासिक और भावनात्मक क्षण की साक्षी बनी, जब बांग्लादेशी मूल की एक मुस्लिम महिला अंबिया बानो ने अपने पूर्वजों की आस्थागत परंपराओं को पुनः जीवित करते हुए सनातन धर्म को अपनाया। धार्मिक आस्था और आत्मिक शांति की खोज में आईं 49 वर्षीय अंबिया बानो ने अब अंबिया माला के रूप में अपनी नई आध्यात्मिक पहचान ग्रहण की है। यह निर्णय केवल उनके लिए नहीं, बल्कि उनकी उस अजन्मी संतान के लिए भी था, जिसे उन्होंने 27 वर्ष पूर्व गर्भ में ही खो दिया था।

अंबिया माला ने दशाश्वमेध घाट पर वैदिक रीति से पिंडदान कर अपनी मृत बेटी की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की। इस विशिष्ट अनुष्ठान को काशी के प्रख्यात पंडितों की देखरेख में पांच वैदिक ब्राह्मणों द्वारा संपन्न किया गया। पूरे कर्मकांड की शुरुआत वैशाख पूर्णिमा के शुभ अवसर पर शांति पाठ से हुई, जिसे आचार्य पंडित दिनेश शंकर दुबे ने संपन्न कराया। इस अनुष्ठान में उनका साथ दिया पंडित सीताराम पाठक, कृष्णकांत पुरोहित, रामकृष्ण पाण्डेय और भंडारी पांडेय ने।

इस धार्मिक परिवर्तन की प्रक्रिया की शुरुआत सामाजिक संस्था आगमन के संस्थापक सचिव डॉ. संतोष ओझा द्वारा कराई गई। उन्होंने अंबिया को गंगा स्नान कराकर आध्यात्मिक शुद्धि का आह्वान किया और उन्हें पंचगव्य का सेवन कराया, जो आत्मशुद्धि का एक पवित्र वैदिक अनुष्ठान है। यहीं पर अंबिया ने औपचारिक रूप से सनातन धर्म को स्वीकार करते हुए अपने नाम के साथ "माला" जोड़ा और सनातन परंपरा में प्रवेश किया।

अंबिया माला का जीवन धार्मिक विविधताओं और आस्थागत संघर्षों से भरा रहा है। बांग्लादेश के सुनामगंज जिले के श्रीरामपुर गांव की मूल निवासी अंबिया, लंबे समय तक लंदन में रहीं। वहीं उनका विवाह नेविल बॉरन जूनियर नामक एक ईसाई व्यक्ति से हुआ था। अंबिया से विवाह करने के लिए नेविल ने इस्लाम धर्म अपनाया, लेकिन लगभग एक दशक बाद दोनों का तलाक मुस्लिम धार्मिक प्रथाओं के तहत हो गया। इन तमाम अनुभवों के बाद अंबिया ने आत्मिक शांति की खोज में काशी की राह पकड़ी और अपने पूर्वजों की परंपरा को दोबारा अपनाने का निर्णय लिया।

अंबिया माला की यह वापसी केवल एक व्यक्तिगत निर्णय नहीं है, बल्कि यह उस गहरी जड़ों की ओर लौटने की एक यात्रा है, जिसे समय, स्थान और परिस्थितियों ने दबा दिया था। सनातन धर्म में दीक्षा लेने के साथ ही उन्होंने न केवल अपनी आध्यात्मिक प्यास को शांत किया, बल्कि काशी जैसे पवित्र स्थल पर अपनी अजन्मी बेटी की आत्मा की मुक्ति की कामना भी पूर्ण श्रद्धा से की। इस अवसर पर घाट पर उपस्थित श्रद्धालुओं और पुरोहितों ने भी अंबिया माला के इस साहसी और भावनात्मक निर्णय की सराहना की।

काशी की गलियों में ऐसे अनगिनत किस्से हैं जो आस्था और आत्मिक परिवर्तन की मिसाल बन जाते हैं, लेकिन अंबिया माला की कहानी विशेष रूप से इसलिए भी उल्लेखनीय है क्योंकि यह धर्म, संस्कृति और मातृत्व के बीच के उस पुल को दर्शाती है, जो आत्मा की मुक्ति की आकांक्षा से जुड़ा होता है।

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